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बुधवार, 30 अक्टूबर 2019

तपस्या


ट्रेन के हिलती सीट ने मानों मेरी यादों को भी झकझोर दिया था । सतना से मुंबई जाते समय महानगरी की सीट पर बैठी मैं एकटक सामने वाली सीट को देख रही थी ।जो खाली थी। परंतु दिमाग और मन दोनों अनेक यादों से भरे हुए थे।ट्रेन और मन दोनों में ही गति थी ,परंतु विपरीत दिशा में। जहां ट्रेन आगे का रास्ता तय करने के लिए गंतव्य तक पहुंचने को आतुर थी ।मेरा मन अतीत मैं पहुंच चुका था ।कारण था  वह जोड़ा ,जो कभी मेरे जीवन का अटूट हिस्सा हुआ करता था।

कॉलेज के दिनों में मैं नीतू और रोहित तीनों के दिल  अलग थे पर धड़कते एक साथ  थे। हमारी दोस्ती के किस्से और कहकहो से कॉलेज के कैंपस गूंजते थे। रोहित की आदत थी वह मुझे और नीतू को  बहुत छेड़ता था ।कभी किताबें छुपा देता,कभी  अध्यापक का झूठा संदेशा देता। जब मैं और नीतू चिड़चिड़ाते तो जोर से ठहाके लगाते हुए कहता ,"ज़िंदगी जिंदादिली का नाम है ,मुर्दा दिल क्या खाक जिया करते हैं ।"गंभीरता से दूर-दूर तक उसका नाता नहीं था ।मैं तो कभी हंस भी देती पर  नीतू  तुनक कर  कहती," लगता है भगवान ने  इसकी जिंदगी के शब्दकोश से  गंभीरता नाम का शब्द हटा ही दिया है । "वह और जोर से ठहाके लगाता । दूसरे वर्ष में मेरी एक कक्षा उन दोनों से अलग हो गई थी , जब मैं उस कक्षा के लिए जाती ,दोनों  पूरा समय साथ ही गुजारते थे ।कभी कैंटीन में बैठकर अध्यापकों की  किस्से सुनाते ,कभी बगीचे के किनारे वाली  छोटी बेंच पर बैठकर  घंटों गुजार देते ।दोनों एक दूसरे की आदत बन गए थे ।हिंदी ऑनर्स के साथ साथ नीतू और रोहित कब प्यार का ऑनर्स भी कर बैठे थे । यह बात मुझे तो क्या  उन्हें भी पता नहीं लगी थी ।पता चलने पर  मैं उनके लिए बहुत खुश हुई। मेरे दिल के दो टुकड़े शायद एक अटूट रिश्ते में बंधने की तैयारी कर चुके थे।

वास्तव में उनके प्यार का यह सिलसिला थर्ड  ईयर से ही शुरू हो चुका था । नीतू को  नृत्य करने का शौक था ।बहुत दिनों से भरतनाट्यम की कक्षाएं शुरू करने के लिए सोच रही थी ।दो साल पहले जब उसके पिताजी का देहांत हुआ था ।घर की आर्थिक स्थिति डांवाडोल हो गई थी ।मां एक अध्यापिका थी जिससे घर और उसके कॉलेज का तो खर्चा निकल जाता पर शौक के लिए हाथ तंग हो जाता था ।मां को भी संगीत का शौक था इसलिए वह भरतनाट्यम में प्रभाकर के चार साल पूरे कर चुकी थी ।जब बातों ही बातों में  नीतू ने रोहित से इसका जिक्र किया था ।रोहित ने उसके पीछे पड़ कर अपने एक मित्र के यहां  कक्षाएं  जारी करवाई । नीतू ने जब ना नुकुर की ।उसने बहुत ही गंभीर भाव से कहा  ,"अब मेरे इतने बड़े एहसान की कीमत कल तुझे कैंटीन में एक चाय पिलाकर उतारनी होगी।" बात हंसी में निकल गई । नीतू ने शाम को एक ट्यूशन कर लिया और उसी से  भरतनाट्यम की फीस भरने लगी ।भरतनाट्यम की कक्षाएं शुरू हो चुकी थी। अतः  ट्यूशन कक्षा  और कॉलेज  के बीच में नीतू और रोहित का  मिलना जुलना भी कम हो गया था ।जब तक दोनों मिलते थे  तब तक तो सबकुछ ठीक था ।दोनों के बीच की दूरी ने रोहित की बेचैनी बढ़ा दी थी । उसे  नीतू की कमी महसूस होने लगी थी। किसी दिन नीतू से यदि कॉलेज में भेंट नहीं होती वह उससे मिलने के लिए बेचैन हो नृत्य कक्षा की तरफ मुड़ जाता । उसने उसके साथ रहने का  एक अनोखा तरीका ढूंढ लिया था वह प्रतिदिन  नियम से  उसे भरतनाट्यम की कक्षाएं लेकर जाता और उसे  घर छोड़ते हुए घर जाता। नीतू के मना करने पर कहता," तुझे कौन लेने- छोड़ने जाता है। मैं तो तफरीह करने आता हूं तो सोचता हूं ,थोड़ा पुण्य कमा लूं । "रोहित की मां भी उसके व्यवहार में हुए अनेक परिवर्तनों को महसूस कर रही थी ।बात ही बात में जब उसने तीन -चार बार नीतू का नाम लिया। मां को सारी बात समझ में आ गई ।इधर नीतू भी आश्चर्यचकित थी ।हर एक बात को मजाक में उड़ाने वाले रोहित को पता नहीं क्या हुआ था कि कभी-कभी   वह बातें करते करते रुक जाता ,कभी बातों के बीच में  वह उसे अपलक  अपनी और देखते पाती । पिछले दो -ढाई साल से रोहित के साथ थी परंतु यह व्यवहार उसके लिए उनका नया था ।उसने सिर झटक दिया कि शायद उसका वहम होगा।

सब कुछ बहुत अच्छा चल रहा था। बीए के तीसरे वर्ष की परीक्षा और प्रभाकर  की परीक्षा दोनों ही नजदीक थी । तभी नीतू की मां की तबीयत  लगभग रोज ही खराब रहने लगी।   नीतू बहुत परेशान रहने लगी थी ।एक दिन जब  उल्टी में खून आया ,नीतू बहुत घबराई। रोहित ने  नीतू को सलाह दी कि वह मां का पूरा चेकअप कराए।रिपोर्ट पढ़कर  नीतू के पैरों तले मानो ज़मीन खिसक गई ।नीतू सकते में आ गई ।ऐसा कैसे हो सकता है ! अभी कुछ समय पहले ही तो पिताजी.... अब मां को कैसे कैंसर हो सकता है ।वह भी तो उसी ईश्वर की ही बेटी है ,उसके साथ इतनी बड़ी नाइंसाफी कैसे कर सकता है ?पर सच का कड़वा घूंट कभी भी परिस्थिति के अनुसार दया नहीं करता , वह तो बस पीना ही पड़ता है।नीतू के सिर पर पहाड़ टूट पड़ा था। डॉक्टर ने  मां का जल्दी से जल्दी इलाज शुरू करने के लिए कहा था । जरा भी देरी करनी से मां की जान पर बन आती। घर के हालात पहले से ही खस्ता थे  और मां की बीमारी ने  उसे तोड़ ही दिया था ।अब निर्णय और व्यवस्था दोनों की जिम्मेदारी नीतू के कंधों पर ही आ पड़ी। नीतू कोई कमजोर लड़की नहीं थी बहुत साहसी थी ।पर माँ का कष्ट उसे कमजोर कर देता ।मां के सिवा उसका कोई नहीं था ।ऐसे हालात आने पर लोगों के पास संवेदना के बस औपचारिक दो बोल होते हैं। क्योंकि पास आने पर जिम्मेदारी  और खर्चे दोनों ही बढ़ जाते हैं ।वह कोई भी उठाने को तैयार नहीं था ।पर नीतू इस दुनिया में अकेली नहीं थी ।नीतू जब मुश्किल हालातों से जूझ रही थी ।उस समय मैं और रोहित दोनों उसके हमकदम थे ।नीतू के चेहरे की एक तिरछी रेखा रोहित को तड़पा देती ।रोहित ने मुश्किलो से जूझने में नीतू का साथ देते हुए दिन -रात एक कर दिया । नीतू के घर की सुबह उसके आने के साथ होती और रात उसके विदा लेने पर ।हालात दिन पर दिन बिगड़ते जा रहे थे ।मां की कीमोथेरेपी में घर के अनेक सामान बेचने पड़े। पहले शादी के लिए की गई एफ डी तोड़ी फिर गहनों की बारी आई ।जब उसने मकान गिरवी रखा उसकी हिम्मत टूटने लगी ।लेकिन रोहित साथ खड़ा रहा ;दिलासा देता रहा ।नीतू के बहुत मना करने पर भी रोहित ने उसे परीक्षा नहीं छोड़ने दी । विवशता में भरतनाट्यम की कक्षाएं उसने अवश्य छोड़ दी परंतु बीए की परीक्षा दी। वह फोन  करके उसे रात को पढ़ने की प्रेरणा देता रहता था ।यहां तक कि घरेलू काम में भी  वह नीतू का हाथ बंटाने लगा था । नीतू ने एक दिन जब रोहित से कहा," तुम्हें पता है तुम बदल गए हो ?"रोहित  फिर से  उसकी तरफ एकटक देखते हुए मुस्कुरा उठा । मानो उसकी मौन आंखें कह रही हों ,"  तुम्हारे लिए कुछ भी !"जब नीतू परीक्षा देने जाती  वह उसकी मां की देखभाल के लिए अपनी मां को उनके पास छोड़ देता ।अपने बेटे को बड़ा और जिम्मेदार होते देखकर उसकी मां की आंखों में कभी कभी आंसू आ जाते थे ।अंततः  सभी की तपस्या का फल मिला ।एक दिन ऐसा भी आया जब परीक्षा का परिणाम और मां  के स्वास्थ्य का परिणाम दोनों घर में खुशियां बिखेरने लगे।

रोहित की  मां  नीतू की मां से  जब उसका  हाथ मांगने के लिए आई उन्होंने उसकी मां से कहा," जिस बेटी ने अपनी हिम्मत से  अपनी मां का जीवन वापस लौटा लिया ,वह मेरी बेटे को तो संभाल ही लेगी।" नीतू की मां की आंखों में आंसू आ गए वह बोली," मुझे दामाद तो शायद अच्छा मिल जाएगा पर रोहित जैसा बेटा कहां मिलेगा ।" उन्होंने बिना देर लगाए अपनी स्वीकृति दे दी । रोहित और नीतू  दोनों ने एक दूसरे की और देखा ।रोहित के चेहरे की खुशी छिपाए नहीं छिप रही थी।आज नीतू की नजर धीरे से नीचे झुक गई । उसने उन अपलक नजरों का राज जान लिया था। दोनों को देखकर  दोनों माएँ  सम्मिलित रूप से हंस पड़ी । मैं उनकी शादी में शामिल नहीं हो पाई थी ।कोर्ट मैरिज कर के वे दोनों दंपत्ति बन चुके थे।रोहित और नीतू को तपस्या के फल के रूप में उनका प्यार मिल चुका था।

अचानक मुझें झटका लगा ट्रेन की गति पर विराम लगने के साथ -साथ मेरे विचारों की गति को भी विराम मिल चुका था। मैं मुस्कुराते हुए उठ खड़ी हुई ।मेरे सामने मेरा वही चिर -परिचित जोड़ा खड़ा मुस्कुरा रहा था । नीतू ने  मुझे उलाहना दिया ,"शादी के समय तो तूने साथ नहीं दिया ,अब पूरा जीवन भी  तेरे साथ के बिना ही गुजारना होगा क्या।" रोहित ने मुस्कराते हुए कहा" कहाँ खोई हुई हो ?दादर स्टेशन आ चुका है ।चलो।"मैं अपना बैग उठाते हुए उनके साथ पुराने दिन फिर से जीने के लिए चल पड़ी।
पल्लवी गोयल
चित्र साभार गूगल से 

मंगलवार, 10 सितंबर 2019

एक टुकड़ी धूप

दो वर्ष पूर्व हुए हादसे ने रजनीश को पूरी तरह से तोड़ कर रख दिया था चौवन वर्षीय रजनीश की रिटायरमेंट में अभी   छः सात   वर्ष शेष   थे  एक दिन आफिस से वापस लौटते समय ट्रक से लगे धक्के ने कार के पिछले हिस्से को मसल दिया और साथ ही उसके  जीवन के  उत्साह  और  उमंग  को  भी।सीट में  फंस जाने के  कारण  उसका कमर  के नीचे  का हिस्सा  पूरी  तरह  अचल  हो  चुका था। वह  जिंदादिल  रजनीश  जो  कभी पार्टियों  की  जान  हुआ करता था  आज  उसकी  पूरी दुनिया  एक  कुर्सी  व  बिस्तर  तक  सीमित  रह गई थी। कुछ  दिनों  तक  तो  आने जाने वालों  से  घर   में  रौनक  रही पर  कुछ  ही दिनों में  यह सन्नाटा  उसे  काटने  दौडने  लगा। ईश्वर की लीला भी अजीब ही है इतना बड़ा शरीर है बरसों बरस चलता रहता है पर एक सुई भी धँस  जाए तो सांस तक उसी में अटक जाती है, और यहाँ  तो बात बिलकुल ही अलग थी  रजनीश की तो पूरी दुनिया  ही बदल चुकी थी 
निशा इस समय सच्ची जीवन संगिनी का धर्म निभा रही थी ।उसकी वजह से उसका  भी जीवन बंध गया था । जब एक असीम संतोष और धैर्य के साथ  वह  अपने पूरे कर्त्तव्यों  निर्वाह करती   तो वह और अपराधबोध से भर उठता ।मन  में उपजती  विषमताएँ  निराशा को  बसेरा  प्रदान  करती  जा रही  थीं  

मंगलवार, 25 जून 2019

नींव का पत्थर

लखनऊ के पुराने मोहल्लों में से एक मोहल्ले में पला बढ़ा महेश आज भी अपना बचपन नहीं भूल पाया है ।तीन मंजिला मकान में पिताजी के साथ -साथ चाचा, ताऊ का परिवार भी वहां खिलखिलाता था। मकान में जगह की कमी जरूर थी पर दिल बहुत बड़े थे। शाम होते ही गर्म छत को ठंडा करने के साथ-साथ सभी के बिस्तर बिछाए जाते सात बजते ही बजते बच्चे थक के चूर हो जाते और बड़े काम से लौट आते ।बच्चों का काम था नीचे रसोई घर से एक-एक रोटी लाकर बड़ों को परोसना । चाची ताइयों का काम था खाना बना कर फटाफट थाली लगाना। एक घंटा की अफरातफरी के बाद सभी छत पर अपने बिस्तर पर विराजमान होते ।इस बड़े जमावड़े के साथ शुरू होता हंसी ठहाके का सिलसिला। 9  बजते सभी नींद की आगोश में समा जाते। पत्रिकाएं आती तो एक नहीं दस आती ताकि पहले पढ़ने के लिए भाई -बहनों में आपस में झगड़े न हों। पाठ्यक्रम की किताब तो मानो खानदानी विरासत थीं। जो एक के बाद दूसरे भाई को शान के साथ सौंप दी जाती ।जिसमें हर एक भाई बहन की नायाब कारीगरी की छाप निशानी के रूप में मौजूद होती ।सुनहरे बचपन के साथ  महेश ने किशोरावस्था में प्रवेश किया।अभी तक तो सब कुछ सही था लेकिन बच्चों के बड़े हो जाने से सभी भाइयों ने समझौता किया । इस घर का साथ नहीं छोड़ेंगे लेकिन रहने के लिए अभी वह कुछ अलग इंतजाम करेंगे। सभी चाचा ताऊ के साथ महेश के पिताजी भी अलग फ्लैट में रहने के लिए आ गए। भरे- पूरे परिवार के साथ रहने के बाद पिताजी और मां दोनों को ही यह अकेलापन खलता जरूर था ।परंतु महेश और मीनू की पढ़ाई और पालन-पोषण में व्यस्त हो गए ।खर्चे बड़े थे सो माँ ने कुछ सिलाई का काम लाकर करना शुरू कर दिया और पिताजी ने ऑफिस में ओवरटाइम। सब कुछ यूं ही चलता रहा महेश अब इंजीनियर बन गया था और मीनू एक बड़े विद्यालय में अध्यापिका के पद पर कार्यरत थी। पिताजी ने बड़े धूमधाम से मीनू की शादी कर दी ।मीनू के जाने के बाद जब अकेलापन खला ।मां बहू लाने की जिद करने लगी ।चूंकि  बेटा इंजीनियर था सो बहू भी पढ़ी- लिखी होनी चाहिए थी ताकि बेटे की सोसाइटी में उठ बैठ सके। खोज शुरू हुई और जल्दी ही खत्म में भी हो गई। मोहिता कॉन्वेंट एजुकेटेड सुंदर लड़की थी। मां को अपने मन मुताबिक बहू मिल चुकी थी। धूमधाम से शादी करने के बाद माँ ने सोचा महीने भर तक बहू के साथ रहेंगी। उसे घर के सारी जिम्मेदारी सौंपकर कुछ दिन तीर्थयात्रा के लिए निकल जाएंगी। परंतु हर सोचा हुआ  हो जाता तो यह दुनिया स्वर्ग बन चुकी होती ।अभी शादी के 1 महीना ही हुआ था। मां एक दिन मंदिर जा रही थी तभी एक कार ने जोर से टक्कर मारी ।बुढ़ापे का शरीर यह वार सह न सका और पूरा घर दुख में डूब गया। 15-20 दिन तक तो घर में आने जाने वालों का, शोक प्रकट करने वालों का तांता बंधा रहा ।परंतु इसके बाद महेश अपने काम पर जाने लगा और मोहिताअपनी सहेलियों और पार्टियों में व्यस्त रहने लगी। पिताजी को यह अकेलापन खाने लगा जिसकी वजह से वह लगातार बीमार रहने लगे ।डॉक्टर ने उन्हें बिना मिर्च मसाले का सादा खाना खाने की सलाह दी। मोहिता को जब पिताजी का खाना अलग से बनाना पड़ता वह मन ही मन भुनभुनती रहती ।महेश के कान भरने लगी थी" मैं पिताजी को बिल्कुल अच्छी नहीं लगती ।जब देखो तब मेरा अपमान किया करते हैं ।जो भी खाना मैं बना लूं उनको कुछ पसंद ही नहीं आता ।"महेश ने रोज की कलह से बचने के लिए पिता जी की सेवा में एक काम वाली बाई रख ली। अभी भी मोहिता को चैन नहीं था ।पिताजी की खांसी की लगातार आवाज ,दवाई की  बदबू उसे जरा भी नहीं सुहाती थी ।नन्हे कमल के जन्म के बाद 5 वर्ष बीत चुके थे। कमल  जब भी दादाजी के पास जाकर उनके साथ खेलता ,वह डर जाती कि कहीं कोई बीमारी उसे भी अपनी चपेट में ना ले ले। महेश 1 महीने के लिए भुवनेश्वर ट्रेनिंग पर गया था और बाई दो दिन की छुट्टी पर गई थी।पिताजी ने कमल को बुलाते हुए कहा ,"बेटा मम्मी से कहो दादा जी बुला रहे हैं ।मोहिता के आने पर पिताजी ने कहा ,बहू,आज दवाई ले आना। दवाई 2 दिन पहले ही खत्म हो गई थी ।मैंने सोचा था महेश आएगा उसी से मंगा लूंगा ।लेकिन आज सवेरे से ही कुछ तकलीफ लग रही है ।"मोहिता वहां से मुंह बना कर चली गई ।रात जब आप पार्टी से वापस आई तो पिताजी ने उसे दवाई के लिए पूछा उसने बहुत सहजता  से जवाब दिया। "मैं भूल गई ,कल आ जाएगी आपकी दवाई ।" दूसरे दिन सवेरे पिताजी की तबीयत अधिक खराब लग रही थी ।उन्होंने कमल को आवाज दी और कहां ,"बेटा, मां को बुला ला।" और मन ही मन अपने आप से बात करने लगे। "उससे ₹500 ले लेता हूं और खुद ही दवाई लेकर आ जाता हूं।"कमल ने यह बात सुनी। मां फोन पर किसी से बात कर रही थी ।उसने मां को दो-तीन बार आवाज दी पर मोहिता ने अनसुना किया। कमल को सामने मां का पर्स दिखाई दिया।  उसमें से ₹पाँच  सौ  निकाला। बड़ी ही मासूमियत के साथ यह जाकर दादा जी को दे दिया पिताजी ने सोचा कि यह पैसा मोहिता ने दिया है । वह दवाई लेने बाजार की ओर चले गए। इधर मोहिता ने पूरा घर सिर पर उठा लिया। मोहित ट्रेनिंग से तुरंत ही वापस आया था  ।जैसे ही उसे घर में कदम रखा उसे मोहिता की कड़कड़ाती आवाज सुनाई दी," बोल फिर ऐसा करेगा?" साथ ही कमल के जोर -जोर से रोने की भी आवाज आ रही थी। महेश के कारण पूछने पर मोहिता गुर्रा," अब आपके पिताजी कमल को चोरी भी सिखा रहे हैं ।अब या तो वह इस घर में रहेंगे या मैं ।मैं कमल को लेकर मायके जा रही हूं।" पिताजी दरवाजे पर ही थे। उन्होंने यह सब बातें सुनी और कहा ,"बहू,तुम्हारा घर है ,तुम कहां जाओगी ?मैं जाता हूं ।"उदास कदमों के साथ उन्होंने अपना सारा सामान लगाया। छड़ी हाथ में लेकर बाहर आते हुए बोले," महेश मेरा सामान उठाते लाना।" महेश आश्चर्यचकित सा कभी मोहिता और कभी पिताजी को जाते हुए देखता रहा ।वह पिता  जी के पीछे चल पड़ा ।रास्ते में पिताजी ने कहा," दुखी मत हो, यहीं पर एक वृद्धाश्रम है। मैं अकेला घर में पड़ा- पड़ा घबराता रहता हूं ।वृद्ध आश्रम में चला जाऊंगा। वहां मेरे बहुत सारे मित्र हैं। मेरा मन लगा रहेगा ।जाओ! तुम अपना घर संभालो। "महेश भरे मन से पिताजी को लेकर उनके बताए रास्ते से  आश्रम की ओर जाने लगा ।रास्ते में उसे पुराना घर दिखा सबसे छोटे चाचा जी अभी भी वहां पूरे परिवार के साथ रह रहे थे ।उसने कार घर पर रोकी। चाचाजी का पूरा परिवार बड़े प्रेम से मिला। चाची जी शिकायत करने लगी ,"अपनी मां के जाने के बाद तो तू हम सबको भूल ही गया। बड़ा अच्छा किया जो इधर आया। कुछ दिन के लिए जेठ जी को इधर ही छोड़ दो ।चाचा जी भी आजकल पुराना समय बहुत याद करते हैं ।उनका भी मन लग जाएगा।" पिताजी के मना करने के बावजूद महेश पिताजी को वहां छोड़ कर आया। इस दृढ़ निश्चय के साथ पिताजी को कुछ समय के लिए यहां मन बदल लेने दो ।मैं नीव के पत्थर को पीछे नहीं छोड़ सकता ।इसी के ऊपर उसके व्यक्तित्व का मकान खड़ा था और ऐसा ही एक दृढ़् व्यक्तित्व उसे कमल के लिए भी चाहिए था।

सम्मोहन



बयालीस  वर्षीय    रीमा अभी तक आगरा के एक दुकान में काम करती थी ।सामान का हिसाब रखने का काम था। ज्यादातर काम फाइलों के माध्यम से निपट जाता था। जो थोड़ा बहुत कंप्यूटर का काम बचता था ,वह सेठ अपने अकाउंटेंट को दे देता था। लड़का इंटर पास कर चुका था और पति से दस वर्ष पूर्व ही तलाक ले लिया था। सारी जिम्मेदारी स्वयं उठाने की आदत ने उसे बहुत आत्मविश्वासी और स्वाभिमानी बना दिया था कभी-कभी अकेलापन महसूस होता था पर बेटे के सानिध्य से वह दूर भी हो जाता था।बेटे श्यामल का ऐडमिशन मुंबई के एक कॉलेज में करवाने के बाद वह अकेली हो गई थी इसलिए सोचा वह भी मुंबई में जाकर ही रहेगी वहाँ कुछ काम ढूंढ लेगी । बेटे का आना और मिलना जुलना भी होता रहेगा तो  इतना अकेलापन नहीं खलेगा ।वह जब मुंबई आई तो रहने का खर्चा ही इतना था कि उसे लगा कि साधारण सी कमाई से काम नहीं बनेगा। अब उसे बड़ा काम करना होगा अकाउंट का सारा काम उसे आता ही था पर जहाँ भी वह काम मांगने गई ,उसे एक ही परेशानी का सामना करना पड़ा। हर एक कंपनी ने अपना हिसाब कंप्यूटर पर रखना शुरू कर दिया था ।उसे कंप्यूटर सीखना आवश्यक था ।उसने सबसे पहले एक छोटी सी दुकान में काम करना शुरू किया ।साथ ही साथ कंप्यूटर सीखना भी शुरू किया। वहाँ उसकी मुलाकात कंप्यूटर इंस्ट्रक्टर संदेश से हुई। संदेश  पैंतीस - छत्तीस वर्ष का युवक था । शुरू में रीमा ने सीखना शुरू जरूर किया पर न आने पर  जब वह झुंझलाती और गलती करती तो संदेश अपने भरपूर हँसी के साथ उसका उत्साह बढ़ाता व कार्य करने के लिए प्रेरित करता, रीमा को उसकी हंसी बहुत पसंद आती ।निर्दोष मुक्त सी हँसी के आकर्षण के साथ बंधी हुई बहुत ही सहजता के साथ उससे बातचीत करती। एक दिन जब संदेश यूं ही खिल-खिलाकर हँस रहा था तो रजनी के एक कथन पर रीमा के मुंह से निकल पड़ा।संदेश की हंसी की तो बात ही मत पूछो ।कोई भी उसकी हँसी के मोह से बचकर नहीं रह सकता ।सामान्य बात कही थी और बात खत्म हो गई पर बात यहीं खत्म नहीं हुई थी ।उसी दिन से संदेश की नजरें कुछ बदल सी गई और कुछ समय बाद रीमा को उसमें  प्रश्न भी तैरते नज़र आने लगे। रीमा ने पहले तो नजरों को फेर कर फिर सहजता पूर्वक बातें करके उसे समझाने की कोशिश की कि जैसा वह समझ रहा है ऐसी कोई बात नहीं पर संदेश बिल्कुल समझने को तैयार नहीं था ।उसकी हँसी गायब हो चुकी थी रीमा को बहुत बुरा लगता कि उसकी वजह से संदेश की हंसी गायब हो चुकी है उसने अपनी उम्र और अपने बेटे के बाबत हर बात बताने का निश्चय किया। पर कुछ ही दिनों में उसे लगने लगा उन आंखों के  जादूई सम्मोहन में वह खुद भी फँसने लगी है। दस साल का अकेलापन व किसी का उसके प्रति आकर्षण जताना उसके लिए पहली बार तो नहीं पर अनोखा जरूर था। अनोखा इसलिए वह संदेश जिसकी मुस्कान उसे पसंद थी, उतने ही निर्दोष संदेश उसे भेज रहा था। आखिरकार रीमा के दिल ने हार मान ली और संदेश को देखते ही उसकी आंखें नीची हो जाती व देखते हुए भी उसे ना देखने का बहाना करती।  अब संदेश ने उसे अपलक आंखों से देख कर मुस्कुराना शुरू कर दिया था ।उसकी झुकी नज़रों में उसे अपने उत्तर मिलने शुरू हो गए थे। संस्थान के वार्षिकोत्सव का दिन था सभी तैयारी में व्यस्त थे । आज जितने लोगों का कोर्स पूरा हो चुका था उन्हें सर्टिफिकेट मिलना था और सर्टिफिकेट मिलने के बाद यहाँ आना भी बंद होने वाला था।उसकी  आतुर नजरें और व्यथित दिल बेसाख़्ता संदेश को ढूंढ रहे थे तभी मोबाइल की घंटी बजी। श्यामल झुंझलाई आवाज़ में बोल रहा था ।"कितनी देर से फोन मिला रहा हूँ, कहाँ हो? घर के बाहर खड़ा हूं ;ताला लगा है; कितनी देर में आओगी?" रीमा को मानो झटका लगा और नींद से सोते  से जगी।बोली, "बेटा, अभी आ रही हूं ।"रास्ते में संदेश मिला। उसने आतुरता से पूछा," कहाँ जा रही हैं, प्रोग्राम शुरू होने वाला है।" उसकी पूरी दृढ़ता के साथ संदेश की आँखों में आँखें डाल कर जवाब दिया ," बेटा इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ता है ,वहां से लौटा है, उसी के पास जा रही हूं। सर्टिफिकेट फिर कभी आकर ले जाऊंगी । नमस्ते कर वह अपनी दृढ़ चाल के साथ दरवाजे की तरफ बढ़ चली। संदेश वहीं खड़ा उसे जाते देखता रहा ।

पल्लवी गोयल
चित्र गूगल से साभार 

दो नयन



अपनी थिसिस पर काम करके सुधा  अलसाई  सी बैठी ही थी कि  डोरबेल ने चौंका दिया। दरवाजे पर डाकिया था।खत पर भेजने वाले व्यक्ति का नाम पढ़ते ही एक जोड़ी आँखें यादों में दौड़ गयीं ।पांच साल बाद इस नाम को पढ़कर विचारों की आंधी का सफर पूरा करते हुए वह शीतल मंद बयार भरे कॉलेज  के बगीचे में  पहुँच गई। जहाँ पहली बार उसको एकटक देखते हुए पाया। सुधा एक साधारण कद­ काठी नैन­नक्श वाली  लड़की थी ।लेकिन आज कॉलेज का प्रथम दिवस था  गुलाबी रंग का सूट उसकी आभा को और गुलाबी बना गया था ।एक जोड़ी आँखों के प्रथम परिचय से ही उसकी आँखे,M शर्म से नीचे  झुक गईं .नेत्रों का प्रथम परिचय गुलाबी आभा को लाल रंगत दे गया . वह आँखें फिर सुधा को दिखाई  दीं।  छः  महीने बाद जब सुधा कॉलेज से घर की ओर जा रही थी तभी वहाँ  भगदड़ मच  गई। भागती हुई औरत ने बताया कि आगे कुछ  शरारती लड़कों का दल तोड़­ फोड़ कर रहा था जिसके कारण लोग भड़क गए और वहां पत्थरबाजी होने लगी . सुधा को एक भागते हुए आदमी का एक जोरदार धक्का लगा वह  गिरने ही वाली थी कि  एक मजबूत  हाथों  ने उसे बचा लिया और उसका हाथ पकड़ कर दौड़ने लगा। यह सब इतने कम समय में हुआ कि सुधा को सँभलने का मौका भी मिला। घबराई हुई सी  जब वह रुकी तो उसने अपने आप को एक दुकान में पाया .उसने आवाज़ सुनी "अब आप सुरक्षित है। "उसने पलट कर देखा एक नवयुवक खड़ा नजर आया  उसे युवक के चेहरे से ज्यादा आँखें  पहचानी लगी  कॉलेज  का प्रथम दिवस उसकी स्मृति में तैर गया।  मैं  आपके कॉलेज  में ही पढ़ता  हूँ ।आप अपने घर कॉल करके  किसी को बुला लीजिए ।अकेले उधर जाना उचित नहीं है .
 सुधा जैसे  ही घर पहुंची उसे याद आया कि वह उस युवक को धन्यवाद करना तो भूल ही गई  उसने सोचा कॉलेज में मिलने पर धन्यवाद कर देगी  घटना के दस पन्द्रह  दिन तक पहले  उसकी  चोर नजरें   'हीरो ' को ढूंढती  रहीं फिर बेसब्र हुईं पर वह कहीं भी नजर नहीं आया   उसके स्पर्श का अहसास कभी कभी उसमे मीठी सी सिहरन भर देता था। 
धीरे­ धीरे कर के उसके कॉलेज के तीन वर्ष कब बीत गए पता ही नहीं चला  कॉलेज से विदाई का दिन भी बड़ा अजीब होता है जहाँ एक डिग्री मिलाने उत्सव की ख़ुशी होती है, तो वहां अपने साथियों से बिछड़ने का गम भी होता है  चारों तरफ हंसी­ ठहाके थे  तभी चिर­ परिचित श्याम नयनों  ने मानो पूरी दुनिया के वक्त को थाम लिया। तीन वर्ष पुराना समय कर फिर  वहीँ  थम गया था। उसकी पलकें स्थिर हो गयीं।  मानो नज़रें  झपकेंगी और वह फिर नज़रों से ओझल हो जाएगा . कल्पना ने सच का जामा  पहना और पल झपकते ही वे नयन  आँखों से ओझल हो गए। उसकी बेचैन नजरें चारोM तरफ उसे ढूँढने  लगीं  पर वह नजर नहीं आया तभी उसकी सहेली उमा ने कंधे पर हाथ मारते हुए कहा" क्या बात है इतनी बेचैन  नज़रों से किसे ढूंढा जा रहा है  कहीं  इसे तो नहीं।"  उसने देखा उमा के हाथ में छोटा सा गुलाबी लिफ़ाफ़ा था।  उसने पूछा ये क्या है  उमा ने कहा"आहा  बड़ी भोली बन रही है, जिसे देख कर पूरी दुनिया भूलकर एकटक देख रही थी उसी ने तुझे देने को कहा है। "सुधा ने नकली गुस्से  से कहाउमा क्या मज़ाक  कर रही है ।किसे देख रही थी..  मुझे कुछ नहीं चाहिए।  “ ठीक है, यदि ये तेरा नहीं है  तो इसे मैं यहाँ रख देती हूँ।  जिसका होगा वह लेता जाएगा।   उमा ने कहा।  वह एक मेज पर लिफाफा रख कर चली गई।  लेकिन सुधा की  बेचैन नजरें   लिफ़ाफ़े  का पीछा करती रहीं सभी की नजरें  बचाकर उसने लिफ़ाफ़ा धीरे से अपने पर्स में रख लिया।  
घर पहुँचते ही उसने अपनी माँ से कहा ,“बहुत थक गई हूँ सोने जा रही हूँ ,कोई मुझे तंग नहीं करेगा।  छोटे भाई रोहित ने चिढ़ाते हुए कहा" हाँ  लाट  गवर्नर आयी हैं ,पूरे  देश का बोझ इन्हीं  के ऊपर तो है।   और कोई समय होता तो भाई ­बहन का युद्ध शुरू हो गया होता।  पर आज के दिन वह चुपचाप कमरे की ओर  जाने को तत्पर हुई।  पीछे से मम्मी की आवाज सुनाई दी।  रोहित तुम्हारी बड़ी बहन है, देखो सचमुच थक गई है, उसे तंग मत करो, सोने दो उसे।  वह अपने कमरे में गई और दरवाजा बंद कर दिया  दरवाज़ा  बंद करते कांपते हाथों से जल्दी जल्दी वह पत्र निकला। पत्र पर केवल चार पंक्तियाँ और लिखने वाले का नाम था। 
जिंदगी में मुलाकातों की दास्ताँ भी अजब होती है,
अजनबी मिलते हैं,बिछड़ने के लिए। 
बिछड़ते हैं, मिलने के लिए,
               सब वक्त की चाहत पर निर्भरहै ।                                                                      सुधीर
सुधीर² नेत्रों से निकला स्नेह वारि इस नाम को सिंचित करता हुआ उसकी स्याही फैलाकर अपनी अमिट छाप छोड़ गया और यह नाम कहीं मेरे दिल में। 
उसके बाद धीरे­ धीरे पांच वर्ष बीत गए  ऍमº ए.  किया पी. एच. डी.  का तृतीय वर्ष चल रहा था।  माँ ने कई  रिश्ते देखे पर पर साधारण नैन­ नक्श के कारण कभी उनकी  तरफ़  से बात नहीं जमी और कभी मेरी तरफ से। कुल मिलाकर अभी तक चिर क्वारी बैठी थी। आज पांच साल बाद फिर वही चिर ­परिचित हृदयाहर्षिल नाम पढ़कर हाथ कॉलेज में प्रथम प्रेम ­पत्र पाने वाली  किशोरी के समान ही काँपने  लगे। कांपते हाथों से जब पत्र खोला तो  पढ़ा­ 
   
 सुधा 
नाम से पूर्व किसी भी सम्बोधन देने का दुस्साहस करने का अधिकारी अपने आप को नहीं समझता।  कॉलेज के प्रथम दिवस के प्रथम आकर्षण को प्रेम समझने की भूल नहीं करना चाहता था।  जीवन में काफी कुछ  करना था। बचपन से घर की आर्थिक स्थिति माँ की दयनीय हालत मुझे नयनों के पाश में बंधने की इजाजत नहीं देते  थे।  परन्तु चाहते हुए भी आज आठ साल बाद भी मन तुम्हारे नयनों हाथों के प्रथम स्पर्श के बंधन  से आजाद नहीं हो सका।  तुम्हारे नयनों में झलकते अपनेपन अपने विवश प्रेमी मन के वशीभूत हो यह पत्र लिखने का साहस कर सका हूँ।  आज मैं सफ़ल  नेवी ऑफिसर हूँ।  पिछले चार सालों में  अपने घर के आर्थिक संकट दूर कर चुका हूँ।  अपने परिवार में एक नवागन्तुक का स्वागत करने योग्य बन चुका हूँ।  बेहद भावुक संवेदनशील हूँ साथ ही अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक भी।  यदि मेरी प्रेम भरी पाती तुम्हें  दो अभागे चिर प्रतिक्षित नयनों की याद दिला  सकी हो,इस पत्र को रद्दी कागज समझ कर फेंक  देना।  यदि 'इनकी ' प्रतीक्षा ख़त्म हो चुकी हो तो मेरा पता है­ 
कैप्टन   सुधीर

देहरादून
तुम्हारे उत्तर की प्रतीक्षा में 
चिर प्रतिक्षित  
दो नयन 
सुधीर का पत्र पूरा पढ़ चुकने तक गालों पर फैली  शर्म की लाली अपनी तीव्र गर्माहट के साथ आँखों पर दस्तक देते हुए गर्म धार के रूप में फूट  पड़ी गालों दिल दोनों को ठंडा करने लगीं।  मुँह  धोकर जब शीशे में अपनी छवि देखी तो लाल आँखों में उमड़ी ढ़ेर  सारी  ख़ुशी दिखाई दी। जल्दी से खड़ी   हो गई।  अभी बहुत सारे काम करने हैं।  पत्र मम्मी को दिखाना है पापा को मनाना है तभी तो 'उनकी ' ख़ुशी 'हमारी ' ख़ुशी बन पाएगी।   
                                                                      पल्लवी गोयल