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सोमवार, 5 अक्टूबर 2020

एक काली लड़की


 उस समय मैं  कक्षा नौवीं की छात्रा थी । सात सहेलियों की पक्की टोली थी।जिसमें कुछ बहुत चुलबुली ,कुछ शरारती थी ।उसमें मैं काफी शांत अपनी दुनिया में खुश रहने वाली थी ।उसी समय कक्षा में एक नई छात्रा का प्रवेश हुआ ,नाम था शालिनी ।स्कूल यूनिफार्म की नीली कुर्ती ,सफेद चुन्नी और काले बालों की दो छोटी चोटियाँ उसके चेहरे के रंग से भी मिलती थी ।यही मेरी पूरी टोली की परेशानी का कारण बन गया ।सोहिनी ने रुबीना के कानों में कुछ फुसफुसकर कहा ,"इसका चेहरा कहां समाप्त हो रहा है और चोटी कहां से शुरू हो रही है, कुछ पता चल रहा है ?"यह वाक्य इतनी तेजी से कहा गया था कि पूरी टोली को सुनाई दे ।सभी अचानक से खिलखिला कर हंस दी। शालिनी ने सभी को हंसते देखकर पीछे मुड़कर देखा ।और खुद भी हँस दी बेचारी को यह पता ही नहीं था ,यह हंसी उसी के लिए रची गई थी। उसे मुस्कुराता देख कर पूरी टोली तो दाएँ-बाएँ देखने लगी पर उससे नजर मिलने पर मैंने मुस्कुरा कर थोड़ा सा हाथ उठाया ।तभी अध्यापिका ने डस्टर बजाकर सब को शांत होने का ऐलान कर दिया ।

शालिनी भी काफी चंचल थी।   हमारी टोली के तरफ उसका सहज आकर्षण स्वाभाविक था। उसने मित्रता का हाथ बढ़ाना शुरू किया लेकिन थामा किसी ने नहीं। सभी बगलें पकड़कर इधर-उधर हो लीं। शालिनी जब मैं मेरे पास आई ,मैंने उससे हाथ मिलाया ।टिफिन की छुट्टी थी अतः साथ ही खाना खाने का ऑफर भी दिया। मुझे नहीं पता था कि टोली के नियमानुसार मै अपराध कर बैठी थी ।शालिनी के टिफिन लेकर बैठते ही सभी ने अपनी-अपनी टिफिन थोड़ा अपनी और सरका ली। शालिनी ने इस बात पर गौर नहीं किया, लेकिन यह परिवर्तन मेरी नजरों से छुप न सका ।टिफिन की छुट्टी खत्म होते ही मुझे एक तरफ ले जाकर समझाया गया। तुम उसे टिफिन के लिए कैसे बुला सकती हो? कितनी काली है वह! मेरे लिए यह वाक्य नया था क्योंकि पिताजी के सिखाए हुए नियमों के अनुसार, रंग भगवान निश्चित करते हैं। हमारा रंग उन्हीं की देन है ।सो दुनिया में ईश्वर की दी हुई हर एक चीज यदि भली है तो काला रंग भी भला है। मुझे उस में कोई कमी नहीं दिखाई दी। मैंने यह तर्क अपने टोली को दिया भी लेकिन बेअसर रहा। उन्होंने साफ कहा," कल से शालिनी हमारे साथ टिफिन में शामिल नहीं होगी ।"मैंने थोड़ा सर झुकाते हुए कहा," ठीक है।" 

दूसरे दिन हमारी छह सहेलियां अलग टिफिन कर रही थी और मैं शालिनी के साथ अलग टिफिन कर रही थी ।शालिनी का मन तो चंचल टोली में बसा था ।उससे पूछा, "आज तुम सबके साथ टिफिन नहीं करोगी? मैंने बहाना बनाया नहीं, आज मेरा बृहस्पतिवार का व्रत है ।तुम मेरे साथ टिफिन करो।वह नहीं मानी वह सभी के साथ 'हैलो'करने गई। मेरी बाकी प्रिय सखियों ने मुंह मोड़ लिया ।वह बात समझ गई ।वह बोली,"मेरा रंग काला है ,इस वजह से सभी मेरे साथ दोस्ती नहीं करना चाहती है ना। मैंने कहा," नहीं ऐसी कोई बात नहीं है ।"लेकिन वह फिर अपने आप से ही बोली ,"काश !मैं गोरी होती।"

इस पूरी घटना को कहानी के रूप में मैंने उस समय अपनी कक्षा को सुनाया ।जब लगभग वैसा ही व्यवहार एक सांवली छात्रा के साथ होता दिखा।
कभी-कभी कुछ व्यवहार जो हम करते हैं ,वह हम स्वयं देख -सुन नहीं सकते ।लेकिन वही व्यवहार जब दूसरे के द्वारा दोहराया जाता है ।उसकी बुराई हमें साफ- साफ नजर आ जाती है।
कहानी सुनाने के बाद इस सिद्धांत का परीक्षण छात्राओं के व्यवहार परिवर्तन से हो भी गया।

चित्र गूगल से साभार 

पल्लवी गोयल 

रविवार, 4 अक्टूबर 2020

उदयाचल


उदयाचल
 उदयाचल



'वह 'कल गांव में आया था ,जब हीरे की बेटी की  बरात दरवाजे थी। पूरा गांव घराती था और गांव का मेहमान 'वह ' देवता के पद पर बैठा दिया गया था। गोरा रंग, लंबा कद , पतला  लेकिन कसरती शरीर ।खाकी रंग के पैंट शर्ट में तो दिख भी विशेष रहा था।

 वैसे भी भारत  में  तो  खाकी रंग वह विशेष रंग है जिसका फीका रंग भी आंखों में दमकता है ,चाहे उसे डाकिया ने पहना हो या थानेदार ने ।दोनों ही गांव वालों के लिए भगवान से कम नहीं। डाकिया पैसे देकर जाता है और थानेदार लेकर ।

'वह'के चेहरे पर  जितनी सरल मुस्कान थी दिमाग उतना ही सतर्क और आंखें चौकन्नी थीं। इससे पहले जिस गांव में रुका था वह मेहमान नवाजी के मुआवजे में दस हजार  का चढ़ावा चढ़ा चुका था ।जो उसकी एक जेब गर्म कर रहा था। अब दूसरी ठंडी दुबली जेब गर्माहट के इंतजार में थी ।तभी उसकी चौकसआंखों ने दूर से ही घर के अंदर चल रही गर्मी की आशा नाप ली ।

खिड़की से झांक करके देखा तो पास के घड़े पर रुमाल में बंधी संभावित 'गर्मी 'हाथ सेकने का आमंत्रण दे रही थी। तभी धोती और सफेद कुर्ती पहने लड़की के बापू की आवाज सुनाई दी ।जो अभी कुछ देर पहले ही उसे इमरती चखने को देकर गया था। पास की उसकी आवाज  दूर गहरे से आती  सुनाई दी। "ले अभागी खा ले । तेरे पिता की सामर्थ्य तेरी डोली नहीं ,तेरी अर्थी उठाने की बची है ।अनाज बेचकर जो दस हजार  तेरे भाई को मिले थे ।पिछले गांव में किसी ने उसे पार कर दिया ।अब मेरी पगड़ी  तेरे हाथ है ।"

'वह' की आंखें पहले चौकी ,फिर चमकी। उसका  हाथ  जेब में रेंगा और फिर खिड़की के अंदर ।अंदर से भाई की आवाज सुनाई दी ।"पिताजी रूकिए ,यह देखिए।"

पिताजी ने शायद देखा ।लेकिन वह देखने के लिए नहीं रुका। सोचने लगा ।' गर्मी 'शायद अमानत थी ।सूर्य अस्ताचलगामी था, हवा चल रही थी ,हवा तेज होती जा रही थी पत्ते सुखद ठंडक का अहसास लिए हवा के साथ दौड़ रहे थे और' 'वह' उदयाचल सूर्य  सा एक दिशा में चढ़ता जा रहा था ।


पल्लवी गोयल 

चित्र गूगल से साभार 


रविवार, 5 जुलाई 2020

गुरु कृपा


"आज मैं विद्यालय की प्रधानाचार्या के पद पर कार्यरत  हूं ।सभी मुझे एक सफल महिला के रूप में देखते हैं। मेरे छात्र मेरे इज्जत करते हैं ।शहर के अनेक विद्यालय मेरे विचारों का अनुसरण करते हैं। आज इन सभी के लिए यदि मैं किसी को धन्यवाद करना चाहती हूं। पूरी दुनिया में एक ही व्यक्ति है, जिसने मेरी अजीब सी चलती हुई जिंदगी में एक ठहराव ला दिया और सही दिशा दिखा कर उस मुकाम तक पहुंचाया। जहां आज मैं खड़ी हूं ।"



सीमा ने अपना कॉलर माइक सही करते हुए कहा ,"मैम क्या आप हमें उस उस महान व्यक्ति से परिचित कराना चाहेंगी?"

 प्रधानाचार्य शाहीन खान ने धीरे से कहा," जी जरूर, मैं अवश्य इस महान शख्सियत से आपका परिचय कराना चाहूंगी। जिसने गुमनाम रहकर भी न केवल मुझे वरन् मुझ जैसी अनेक लड़कियों को सही राह दिखाई और सही मुकाम तक पहुंचाया। 
वह सावधान होकर बैठ गई और बोलना शुरू किया 
मैं एक छोटे से गांव की मुस्लिम परिवार की लड़की थी। पाँच भाइयों और तीन बहनों में मेरा स्थान आठवां था।जुलाहे की लड़की थी ।बस खाने- पीने भर की कमाई थी। घर में सभी भाई- बहन ,अब्बा और अम्मी सभी काम करते ,तब जाकर दो वक्त की रोटी जुट पाती थी।लट्ठे उठाने और रखने का काम मेरा था। आँगन से सूत का लट्ठा उठाकर दरवाजे के बाहर रखना होता था। जहां अब्बा बुनाई का काम करते थे। सड़क के उस पार ही गाँव का एकलौता स्कूल था। स्कूल  से आता हुआ बच्चों का सम्मिलित स्वर मुझे बहुत  अच्छा लगता था। मैं वही पिताजी के साथ दरवाजे पर बैठकर घंटों स्कूल की तरफ देखा करती। उस समय मैं कोई पाँच साल की रही होऊँगी ।सामने टीन शेड में कक्षा लेते मास्टर सीताराम मुझे देख कर हँस देते और मैं उनको देखकर हँस देती। निर्दोष हँसी  का  यह  क्रम महीनों तक यूं ही चलता रहा एक दिन  सड़क पार करके  मैं टीन शेड के के नीचे जाकर बैठ गई और अनायास ही उनका पढ़ाया पाठ दोहराने लगी। मास्टर जी मुझे देख कर  मुस्कुराए। फिर तो यह रोज का ही क्रम हो गया जैसे ही मेरा मन करता मैं कक्षा में बैठ जाती ।वहीं से अब्बा पर नजर रखती ज्यों ही उनको लट्ठे की जरूरत होती ,मैं लाकर पकड़ा कर फिर बैठ जाती ।अब्बा हँस देते ।सरकारी स्कूल में फीस की कोई आवश्यकता नहीं थी ।मेरी लगन ही काफी थी ।मेरा पढ़ने का चाव देखकर मास्टर सीताराम ने मुझे कुछ पुस्तकें दे दी थी।

सीमा;:अम्मी और भाइयों की तरफ से भी आप को विरोध का सामना करना पड़ा?
 "जी हां , अन्य भाई बहनों की तरह अम्मी तो यही चाहती थी कि मैं घर रहकर  घर का काम करू। उन्हें मेरा विद्यालय जाना पसंद नहीं था । उनहोंने  घोर विरोध किया अबअब्बा की भी  उनके सामने  एक न चली। फिर मास्टर सीताराम ने उन्हें जाकर  क्या समझाया  कि  वह दाखिले के लिए राजी  भी हो गईँ  और उन्होंने मुझे कभी कुछ  कहा भी नहीं ।" 

 मास्टर सीताराम ने मेरा सहयोग किया। आठवीं कक्षा की बोर्ड परीक्षा में मैंने पूरे गाँव का नाम रोशन किया । शहर के नवोदय विद्यालय में मेरा दाखिला करवा दिया। वहाँ से मैं आगे बढ़ती गई। गाँव  से मास्टर सीताराम का आना-जाना  लगा रहा ।वह हमेशा मेरा साथ देते रहे। आज मैं जो हूं उनकी शिक्षा ,सदाचार और उपकारों की वजह से हूं।"

 सीमा ने कहा,क्या आपने कभी अपने गुरु जी से पूछा कि उन्होंने आपकी  अम्मी से क्या कहा?

शाहीन जी ने हौले से मुस्काते हुए कहा,"जी हाल में ही मेरे बहुत जोर  देने पर उन्होंने बताया था ।उनहोंने अम्मी से एक बहुत सरल प्रश्न का उत्तर माँगा था। यदि अम्मी के अम्मी-अब्बू  उन्हें पढ़ाई करने देते तो वह क्या करती?"
अम्मी की अधूरी हसरतों ने उत्तर के रूप में  मेरा पूरा जीवन सँवारा दिया। "

रिपोर्टर सीमा ने कहा ,"आपकी जीवन गाथा तो समाज के लिए प्रेरणा है ।मास्टर सीताराम जैसे निस्वार्थ गुरु और आप जैसी परिश्रमी शिष्याओं के कारण ही समाज रोशन है।"
पल्लवी गोयल 
चित्र गूगल से साभार 

मंगलवार, 12 मई 2020

लाॅकडाउन में क्या करें?





कोरोना वायरस के कारण लंबे समय तक चलने वाले लॉक डाउन ने हमें ना चाहते हुए भी घरों में रहने के लिए विवश कियाप है ।मेरे विचारों में कार्यों की कुछ ऐसी सूची है जिसे समय की कमी या व्यस्तता उनको करने में बाधक बनती रही है। आज सबसे सही समय है कि हम उसमें से एक या दो चुनकर उसे अपने जीवन में उसे उतारे। हममें से कई ऐसे लोग हैं जो ऐसा कर भी रहे हैं।

1.घर को चलाने वाले सभी सहायक हाथ मजबूरीवश अपने घरों में कैद है। ऐसे समय में दैनिक दिनचर्या में सभी सदस्यों की समान भागीदारी रखने से कार्य शीघ्रता से निपट जाएगा और घर के सभी सदस्यों क्वॉलिटी  टाइम साथ में  बिता पाएंगे ।साथ ही हम अपने कैद सहायक हाथों को जिंदा रखने के लिए उनकी तनखा भी सहजता व उदारता के साथ दे पाएंगे।

2. अपने किसी कलात्मक अभिवृत्ति या रुचि को निखारने के लिए भी यह उत्तम समय है-  जैसे पेंटिंग, गायन ,वादन ,बागवानी । हम इनका संग्रह भी तैयार कर सकते हैं। जो सुखद स्मृति के रूप में सदैव हमारे  साथ जुड़कर रहेगा ।

3.परिवार के साथ क्वॉलिटी टाइम बिताने के लिए  एकसाथ व्यायाम करना,कुछ खेल खेलना जैसे- लूडो ,सांप -सीढ़ी,  आइस -पाइस ,आँखों पर पट्टी बांधकर छूना ,पीठ पर घोड़े की सवारी, तकिए से चुहल बाजी। कुछ समय के लिए हमें मोबाइल से दूर भी रखेगा और परिवार के हर सदस्य का स्पर्श,  उनसे नजरें मिलाना ,साथ मिलकर ठहाके  लगाना हमें जीवंत भी रखेगा ।

4.इस समय परिवार के साथ मिल बैठने छोटे बड़े हर किसी के अनुभव जीवन प्रसंगों को सुनने से एक दूसरे के प्रति संवेदनशीलता बढ़ेगी व रिश्ते और अधिक मजबूत होंगे।  सभी को पारिवारिक यादों को बांटना व संजोना अच्छा लगेगा ।

5.यह समय मातृभाषा के परवरिश का काल भी बन सकता  है।अपनी मातृभाषा में  मनपसंद पुस्तक पढ़ना  ,फिल्म देखना इसी में बात करने से भाषा पर पकड़ अच्छी बनेगी। जो आत्मीयता का सृजन  करेगी।

6.डायरी के पन्नों में प्रकृति परिवर्तन, पारिवारिक संबंध विशिष्ट वर्ग की कर्मठता जैसे विषयों को स्थान  देना जो भविष्य में मानवता के प्रति हमारे विश्वास को जगाए रखेगी।

7. पुराना संकलन देखना जैसे एल्बम, टिकट संग्रह ,पुराने पत्रों के बंडल पढ़ना अतीत को ताजा कर देगा ।

8.आज मीडिया  के दौर में हम आन-लाइन आकर कुछ  समय के अपने एकल परिवारों को संयुक्त बना सकते हैं ।

9.मानवीय मूल्यों को जीवित रखते  हुए हम गुप्तदान ,  श्रमदान करके राष्ट्र संबल भी बन सकते हैं ।

जो आज वर्तमान है कल अतीत के रुप में  हमारे जीवन पृष्ठों में जुड़ जाएगा ।अपने इस पन्ने को यदि बोरियत काल के अपेक्षा रचनात्मक काल में तब्दील कर सकें तो हमारी जीत होगी।


 मेरे दिमाग में जो कार्यों की सूची थी वह मैंने आपके साथ बाँटी है। यदि आपके पास भी ऐसे सुझाव हैं तो नीचे कमेंट बॉक्स में जोड़ते जाइए। क्या पता आपका एक सुझाव किसी के अतीत की पुस्तक  में एक सुनहरा पन्ना  और जोड़ दे।
# घर पर रहें ।
आप सुरक्षित,देश सुरक्षित ।

पल्लवी गोयल 🙏
चित्र गूगल से साभार 

शनिवार, 21 मार्च 2020

भस्मासुर बनाम हम



आज कोरोना वायरस का कहर पूरे विश्व पर टूट रहा है ।मानव बचने के लिए भागा -भागा फिर रहा है। कुछ स्वाद लोलुप मानवोंं  ने प्रकृति के नियम को मानने से इनकार किया ।यह धरा का विधान है हर एक प्राणी को अपने किए का फल भुगतना ही होता है। इसे हम इस कथा द्वारा समझ सकते हैं-

पौराणिक कथाओं में वर्णित भस्मासुर नाम का राक्षस जब भगवान शिव  से अमरता  के वरदान की कामना लिए ,किसी के सिर पर हाथ रखने पर उसे भस्म करने की शक्ति मांगता है। उसे परखने के लिए स्वयं आराध्य को ही शिकार बनाता है ।भगवान विष्णु के रूप में मोहिनी ने उसके सिर पर उसका हाथ रखवा कर उसे भस्म कर  दंड दिया ।

आज का मानव कुछ ऐसा ही भस्मासुर बना है जिसने प्रकृति से वरदान में हर एक वस्तु प्राप्त की है, पर वह वर्चस्व स्थापित कर प्रकृति के अन्य सभी  उपादानों को निगलने को तैयार बैठा है ।प्रकृति का भी अपना नियम, संतुलन और न्याय है। उसके लिए हर एक आयाम महत्वपूर्ण है। वर्तमान में उसे अपने हाथों की ताकत के साथ प्रकृति की ताकत का भी अनुमान हो गया होगा। न्याय करने के लिए जब वह दंड उठाती है तो तो तुच्छता का एहसास स्वतः ही हो जाता है ।

फिलहाल अपने हाथों से स्वयं को और अपने अपनों को बचाने के लिए हमें केवल इतना ध्यान रखना होगा -

इस बड़े से ब्रह्मांड के
एक छोटे से ग्रह के
एक छोटे से शरीर में बंद
जान को रखें सुरक्षित।
 हम सुरक्षित ,परिवार सुरक्षित,
देश सुरक्षित ,विश्व सुरक्षित
छुद्र इच्छाओं ,झूठे अहंकार
से ऊपर है धरा का अस्तित्व ।


कोरोना नाम के प्राकृतिक दंड से स्वयं को बचाने के लिए -
  1. कुछ समय के लिए परिजनों  के साथ घर में रहें ।
  2.  घर से ही काम करें  ।
  3. अति आवश्यक होने पर ही घर से स्वच्छता व सुरक्षा नियमों का ध्यान  रखकर ही निकलें।
  4. जागरूक रहें, सुरक्षित रहें।

©® पल्लवी गोयल 
चित्र गूगल से साभार 

रविवार, 15 मार्च 2020



कार के पहिए की गति के साथ ही आशा के विचार भी सफर करते हुए सात साल पीछे पहुंच चुके थे। शादी होकर जब वह घर आई थी सास और दोनों ननदों ने हाथों हाथ  स्वागत किया था।  छह महीने  हंसी-खुशी बीते फिर एक  दिन सास से हँसते हुए कहा ,"बहू अब बस एक पोता मेरी गोद में दे दो।" आशा शरमाती हुई धीरे से अपने कमरे में चली गई ।साल बीतने पर सास ने उसे तिखार कर कहा ,"बस ,बहुत हो गई प्लानिंग! अब कर ही लो।" दो-तीन साल के बाद पाँच साल भी बीत गए और सास की गोद पोते से वंचित ही थी ।पीर, मजार, मंदिर, मस्जिद,और डाॅक्टर। कुछ भी उन्होंने नहीं छोड़ा धीरे-धीरे सात साल बीत गए। एक दिन बड़े विश्वास के साथ एक मुट्ठी किशमिश  लाईं और माथे लगाते हुए आशा को देते हुए बोली। "तीन साल बाद मेरे गुरुजी शहर आए हैं। उन्होंने बिना समस्या बताए ही मुझे कहा, जा ,अपने बहू को खिला दे।" बहू ने आज्ञा का पालन किया और माथे लगाकर उसे  खा लिया। दूसरे दिन सवेरे ही आशा को उल्टियां होने लगी ।गुरु जी की जय करते हुए कहा," देखा कितना जल्दी परिणाम आया ।जब डॉक्टर घर आए तो पता चला ।यह फूड प्वाइजनिंग थी। एक हफ्ते तक बिस्तर पर पड़ी आशा  बीते सात  सालों में हुए सारे टोने-टोटके को याद करती रही। माताजी का मन रखने के लिए वह यह सब कर रही थी लेकिन असलियत उसे पता थी ।बहुत इलाज के बाद भी पति उसे मां बनाने में सक्षम नहीं थे ।सारे डॉक्टर जवाब दे चुके थे पति- पत्नी का असीम प्रेम और विश्वास आशा को सास की सभी जायज- नाजायज बातें सहने में मदद करता था पर अब पानी सिर से ऊँचा उठ गया था। बीमारी के बाद जब आशा ने बिस्तर छोड़ा तो कार की चाबी उठाकर हल्की मुस्कान के साथ  कहा ,"माँ मैं आती हूं।" सास उसका चेहरा देख रही थी ।
एक झटके के साथ ही कार और आशा के विचारों को भी विराम मिल गया ।'निसर्ग 'अनाथालय को देखते ही उसने बगल की सीट पर बैठे पति को देखा। दोनों के चेहरे की मुस्कान और गहरी हो गई।

पल्लवी गोयल
चित्र गूगल से साभार 

बुधवार, 30 अक्टूबर 2019

तपस्या


ट्रेन के हिलती सीट ने मानों मेरी यादों को भी झकझोर दिया था । सतना से मुंबई जाते समय महानगरी की सीट पर बैठी मैं एकटक सामने वाली सीट को देख रही थी ।जो खाली थी। परंतु दिमाग और मन दोनों अनेक यादों से भरे हुए थे।ट्रेन और मन दोनों में ही गति थी ,परंतु विपरीत दिशा में। जहां ट्रेन आगे का रास्ता तय करने के लिए गंतव्य तक पहुंचने को आतुर थी ।मेरा मन अतीत मैं पहुंच चुका था ।कारण था  वह जोड़ा ,जो कभी मेरे जीवन का अटूट हिस्सा हुआ करता था।

कॉलेज के दिनों में मैं नीतू और रोहित तीनों के दिल  अलग थे पर धड़कते एक साथ  थे। हमारी दोस्ती के किस्से और कहकहो से कॉलेज के कैंपस गूंजते थे। रोहित की आदत थी वह मुझे और नीतू को  बहुत छेड़ता था ।कभी किताबें छुपा देता,कभी  अध्यापक का झूठा संदेशा देता। जब मैं और नीतू चिड़चिड़ाते तो जोर से ठहाके लगाते हुए कहता ,"ज़िंदगी जिंदादिली का नाम है ,मुर्दा दिल क्या खाक जिया करते हैं ।"गंभीरता से दूर-दूर तक उसका नाता नहीं था ।मैं तो कभी हंस भी देती पर  नीतू  तुनक कर  कहती," लगता है भगवान ने  इसकी जिंदगी के शब्दकोश से  गंभीरता नाम का शब्द हटा ही दिया है । "वह और जोर से ठहाके लगाता । दूसरे वर्ष में मेरी एक कक्षा उन दोनों से अलग हो गई थी , जब मैं उस कक्षा के लिए जाती ,दोनों  पूरा समय साथ ही गुजारते थे ।कभी कैंटीन में बैठकर अध्यापकों की  किस्से सुनाते ,कभी बगीचे के किनारे वाली  छोटी बेंच पर बैठकर  घंटों गुजार देते ।दोनों एक दूसरे की आदत बन गए थे ।हिंदी ऑनर्स के साथ साथ नीतू और रोहित कब प्यार का ऑनर्स भी कर बैठे थे । यह बात मुझे तो क्या  उन्हें भी पता नहीं लगी थी ।पता चलने पर  मैं उनके लिए बहुत खुश हुई। मेरे दिल के दो टुकड़े शायद एक अटूट रिश्ते में बंधने की तैयारी कर चुके थे।

वास्तव में उनके प्यार का यह सिलसिला थर्ड  ईयर से ही शुरू हो चुका था । नीतू को  नृत्य करने का शौक था ।बहुत दिनों से भरतनाट्यम की कक्षाएं शुरू करने के लिए सोच रही थी ।दो साल पहले जब उसके पिताजी का देहांत हुआ था ।घर की आर्थिक स्थिति डांवाडोल हो गई थी ।मां एक अध्यापिका थी जिससे घर और उसके कॉलेज का तो खर्चा निकल जाता पर शौक के लिए हाथ तंग हो जाता था ।मां को भी संगीत का शौक था इसलिए वह भरतनाट्यम में प्रभाकर के चार साल पूरे कर चुकी थी ।जब बातों ही बातों में  नीतू ने रोहित से इसका जिक्र किया था ।रोहित ने उसके पीछे पड़ कर अपने एक मित्र के यहां  कक्षाएं  जारी करवाई । नीतू ने जब ना नुकुर की ।उसने बहुत ही गंभीर भाव से कहा  ,"अब मेरे इतने बड़े एहसान की कीमत कल तुझे कैंटीन में एक चाय पिलाकर उतारनी होगी।" बात हंसी में निकल गई । नीतू ने शाम को एक ट्यूशन कर लिया और उसी से  भरतनाट्यम की फीस भरने लगी ।भरतनाट्यम की कक्षाएं शुरू हो चुकी थी। अतः  ट्यूशन कक्षा  और कॉलेज  के बीच में नीतू और रोहित का  मिलना जुलना भी कम हो गया था ।जब तक दोनों मिलते थे  तब तक तो सबकुछ ठीक था ।दोनों के बीच की दूरी ने रोहित की बेचैनी बढ़ा दी थी । उसे  नीतू की कमी महसूस होने लगी थी। किसी दिन नीतू से यदि कॉलेज में भेंट नहीं होती वह उससे मिलने के लिए बेचैन हो नृत्य कक्षा की तरफ मुड़ जाता । उसने उसके साथ रहने का  एक अनोखा तरीका ढूंढ लिया था वह प्रतिदिन  नियम से  उसे भरतनाट्यम की कक्षाएं लेकर जाता और उसे  घर छोड़ते हुए घर जाता। नीतू के मना करने पर कहता," तुझे कौन लेने- छोड़ने जाता है। मैं तो तफरीह करने आता हूं तो सोचता हूं ,थोड़ा पुण्य कमा लूं । "रोहित की मां भी उसके व्यवहार में हुए अनेक परिवर्तनों को महसूस कर रही थी ।बात ही बात में जब उसने तीन -चार बार नीतू का नाम लिया। मां को सारी बात समझ में आ गई ।इधर नीतू भी आश्चर्यचकित थी ।हर एक बात को मजाक में उड़ाने वाले रोहित को पता नहीं क्या हुआ था कि कभी-कभी   वह बातें करते करते रुक जाता ,कभी बातों के बीच में  वह उसे अपलक  अपनी और देखते पाती । पिछले दो -ढाई साल से रोहित के साथ थी परंतु यह व्यवहार उसके लिए उनका नया था ।उसने सिर झटक दिया कि शायद उसका वहम होगा।

सब कुछ बहुत अच्छा चल रहा था। बीए के तीसरे वर्ष की परीक्षा और प्रभाकर  की परीक्षा दोनों ही नजदीक थी । तभी नीतू की मां की तबीयत  लगभग रोज ही खराब रहने लगी।   नीतू बहुत परेशान रहने लगी थी ।एक दिन जब  उल्टी में खून आया ,नीतू बहुत घबराई। रोहित ने  नीतू को सलाह दी कि वह मां का पूरा चेकअप कराए।रिपोर्ट पढ़कर  नीतू के पैरों तले मानो ज़मीन खिसक गई ।नीतू सकते में आ गई ।ऐसा कैसे हो सकता है ! अभी कुछ समय पहले ही तो पिताजी.... अब मां को कैसे कैंसर हो सकता है ।वह भी तो उसी ईश्वर की ही बेटी है ,उसके साथ इतनी बड़ी नाइंसाफी कैसे कर सकता है ?पर सच का कड़वा घूंट कभी भी परिस्थिति के अनुसार दया नहीं करता , वह तो बस पीना ही पड़ता है।नीतू के सिर पर पहाड़ टूट पड़ा था। डॉक्टर ने  मां का जल्दी से जल्दी इलाज शुरू करने के लिए कहा था । जरा भी देरी करनी से मां की जान पर बन आती। घर के हालात पहले से ही खस्ता थे  और मां की बीमारी ने  उसे तोड़ ही दिया था ।अब निर्णय और व्यवस्था दोनों की जिम्मेदारी नीतू के कंधों पर ही आ पड़ी। नीतू कोई कमजोर लड़की नहीं थी बहुत साहसी थी ।पर माँ का कष्ट उसे कमजोर कर देता ।मां के सिवा उसका कोई नहीं था ।ऐसे हालात आने पर लोगों के पास संवेदना के बस औपचारिक दो बोल होते हैं। क्योंकि पास आने पर जिम्मेदारी  और खर्चे दोनों ही बढ़ जाते हैं ।वह कोई भी उठाने को तैयार नहीं था ।पर नीतू इस दुनिया में अकेली नहीं थी ।नीतू जब मुश्किल हालातों से जूझ रही थी ।उस समय मैं और रोहित दोनों उसके हमकदम थे ।नीतू के चेहरे की एक तिरछी रेखा रोहित को तड़पा देती ।रोहित ने मुश्किलो से जूझने में नीतू का साथ देते हुए दिन -रात एक कर दिया । नीतू के घर की सुबह उसके आने के साथ होती और रात उसके विदा लेने पर ।हालात दिन पर दिन बिगड़ते जा रहे थे ।मां की कीमोथेरेपी में घर के अनेक सामान बेचने पड़े। पहले शादी के लिए की गई एफ डी तोड़ी फिर गहनों की बारी आई ।जब उसने मकान गिरवी रखा उसकी हिम्मत टूटने लगी ।लेकिन रोहित साथ खड़ा रहा ;दिलासा देता रहा ।नीतू के बहुत मना करने पर भी रोहित ने उसे परीक्षा नहीं छोड़ने दी । विवशता में भरतनाट्यम की कक्षाएं उसने अवश्य छोड़ दी परंतु बीए की परीक्षा दी। वह फोन  करके उसे रात को पढ़ने की प्रेरणा देता रहता था ।यहां तक कि घरेलू काम में भी  वह नीतू का हाथ बंटाने लगा था । नीतू ने एक दिन जब रोहित से कहा," तुम्हें पता है तुम बदल गए हो ?"रोहित  फिर से  उसकी तरफ एकटक देखते हुए मुस्कुरा उठा । मानो उसकी मौन आंखें कह रही हों ,"  तुम्हारे लिए कुछ भी !"जब नीतू परीक्षा देने जाती  वह उसकी मां की देखभाल के लिए अपनी मां को उनके पास छोड़ देता ।अपने बेटे को बड़ा और जिम्मेदार होते देखकर उसकी मां की आंखों में कभी कभी आंसू आ जाते थे ।अंततः  सभी की तपस्या का फल मिला ।एक दिन ऐसा भी आया जब परीक्षा का परिणाम और मां  के स्वास्थ्य का परिणाम दोनों घर में खुशियां बिखेरने लगे।

रोहित की  मां  नीतू की मां से  जब उसका  हाथ मांगने के लिए आई उन्होंने उसकी मां से कहा," जिस बेटी ने अपनी हिम्मत से  अपनी मां का जीवन वापस लौटा लिया ,वह मेरी बेटे को तो संभाल ही लेगी।" नीतू की मां की आंखों में आंसू आ गए वह बोली," मुझे दामाद तो शायद अच्छा मिल जाएगा पर रोहित जैसा बेटा कहां मिलेगा ।" उन्होंने बिना देर लगाए अपनी स्वीकृति दे दी । रोहित और नीतू  दोनों ने एक दूसरे की और देखा ।रोहित के चेहरे की खुशी छिपाए नहीं छिप रही थी।आज नीतू की नजर धीरे से नीचे झुक गई । उसने उन अपलक नजरों का राज जान लिया था। दोनों को देखकर  दोनों माएँ  सम्मिलित रूप से हंस पड़ी । मैं उनकी शादी में शामिल नहीं हो पाई थी ।कोर्ट मैरिज कर के वे दोनों दंपत्ति बन चुके थे।रोहित और नीतू को तपस्या के फल के रूप में उनका प्यार मिल चुका था।

अचानक मुझें झटका लगा ट्रेन की गति पर विराम लगने के साथ -साथ मेरे विचारों की गति को भी विराम मिल चुका था। मैं मुस्कुराते हुए उठ खड़ी हुई ।मेरे सामने मेरा वही चिर -परिचित जोड़ा खड़ा मुस्कुरा रहा था । नीतू ने  मुझे उलाहना दिया ,"शादी के समय तो तूने साथ नहीं दिया ,अब पूरा जीवन भी  तेरे साथ के बिना ही गुजारना होगा क्या।" रोहित ने मुस्कराते हुए कहा" कहाँ खोई हुई हो ?दादर स्टेशन आ चुका है ।चलो।"मैं अपना बैग उठाते हुए उनके साथ पुराने दिन फिर से जीने के लिए चल पड़ी।
पल्लवी गोयल
चित्र साभार गूगल से