उदयाचल |
'वह 'कल गांव में आया था ,जब हीरे की बेटी की बरात दरवाजे थी। पूरा गांव घराती था और गांव का मेहमान 'वह ' देवता के पद पर बैठा दिया गया था। गोरा रंग, लंबा कद , पतला लेकिन कसरती शरीर ।खाकी रंग के पैंट शर्ट में तो दिख भी विशेष रहा था।
वैसे भी भारत में तो खाकी रंग वह विशेष रंग है जिसका फीका रंग भी आंखों में दमकता है ,चाहे उसे डाकिया ने पहना हो या थानेदार ने ।दोनों ही गांव वालों के लिए भगवान से कम नहीं। डाकिया पैसे देकर जाता है और थानेदार लेकर ।
'वह'के चेहरे पर जितनी सरल मुस्कान थी दिमाग उतना ही सतर्क और आंखें चौकन्नी थीं। इससे पहले जिस गांव में रुका था वह मेहमान नवाजी के मुआवजे में दस हजार का चढ़ावा चढ़ा चुका था ।जो उसकी एक जेब गर्म कर रहा था। अब दूसरी ठंडी दुबली जेब गर्माहट के इंतजार में थी ।तभी उसकी चौकसआंखों ने दूर से ही घर के अंदर चल रही गर्मी की आशा नाप ली ।
खिड़की से झांक करके देखा तो पास के घड़े पर रुमाल में बंधी संभावित 'गर्मी 'हाथ सेकने का आमंत्रण दे रही थी। तभी धोती और सफेद कुर्ती पहने लड़की के बापू की आवाज सुनाई दी ।जो अभी कुछ देर पहले ही उसे इमरती चखने को देकर गया था। पास की उसकी आवाज दूर गहरे से आती सुनाई दी। "ले अभागी खा ले । तेरे पिता की सामर्थ्य तेरी डोली नहीं ,तेरी अर्थी उठाने की बची है ।अनाज बेचकर जो दस हजार तेरे भाई को मिले थे ।पिछले गांव में किसी ने उसे पार कर दिया ।अब मेरी पगड़ी तेरे हाथ है ।"
'वह' की आंखें पहले चौकी ,फिर चमकी। उसका हाथ जेब में रेंगा और फिर खिड़की के अंदर ।अंदर से भाई की आवाज सुनाई दी ।"पिताजी रूकिए ,यह देखिए।"
पिताजी ने शायद देखा ।लेकिन वह देखने के लिए नहीं रुका। सोचने लगा ।' गर्मी 'शायद अमानत थी ।सूर्य अस्ताचलगामी था, हवा चल रही थी ,हवा तेज होती जा रही थी पत्ते सुखद ठंडक का अहसास लिए हवा के साथ दौड़ रहे थे और' 'वह' उदयाचल सूर्य सा एक दिशा में चढ़ता जा रहा था ।
पल्लवी गोयल
चित्र गूगल से साभार
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