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शनिवार, 21 मार्च 2020

भस्मासुर बनाम हम



आज कोरोना वायरस का कहर पूरे विश्व पर टूट रहा है ।मानव बचने के लिए भागा -भागा फिर रहा है। कुछ स्वाद लोलुप मानवोंं  ने प्रकृति के नियम को मानने से इनकार किया ।यह धरा का विधान है हर एक प्राणी को अपने किए का फल भुगतना ही होता है। इसे हम इस कथा द्वारा समझ सकते हैं-

पौराणिक कथाओं में वर्णित भस्मासुर नाम का राक्षस जब भगवान शिव  से अमरता  के वरदान की कामना लिए ,किसी के सिर पर हाथ रखने पर उसे भस्म करने की शक्ति मांगता है। उसे परखने के लिए स्वयं आराध्य को ही शिकार बनाता है ।भगवान विष्णु के रूप में मोहिनी ने उसके सिर पर उसका हाथ रखवा कर उसे भस्म कर  दंड दिया ।

आज का मानव कुछ ऐसा ही भस्मासुर बना है जिसने प्रकृति से वरदान में हर एक वस्तु प्राप्त की है, पर वह वर्चस्व स्थापित कर प्रकृति के अन्य सभी  उपादानों को निगलने को तैयार बैठा है ।प्रकृति का भी अपना नियम, संतुलन और न्याय है। उसके लिए हर एक आयाम महत्वपूर्ण है। वर्तमान में उसे अपने हाथों की ताकत के साथ प्रकृति की ताकत का भी अनुमान हो गया होगा। न्याय करने के लिए जब वह दंड उठाती है तो तो तुच्छता का एहसास स्वतः ही हो जाता है ।

फिलहाल अपने हाथों से स्वयं को और अपने अपनों को बचाने के लिए हमें केवल इतना ध्यान रखना होगा -

इस बड़े से ब्रह्मांड के
एक छोटे से ग्रह के
एक छोटे से शरीर में बंद
जान को रखें सुरक्षित।
 हम सुरक्षित ,परिवार सुरक्षित,
देश सुरक्षित ,विश्व सुरक्षित
छुद्र इच्छाओं ,झूठे अहंकार
से ऊपर है धरा का अस्तित्व ।


कोरोना नाम के प्राकृतिक दंड से स्वयं को बचाने के लिए -
  1. कुछ समय के लिए परिजनों  के साथ घर में रहें ।
  2.  घर से ही काम करें  ।
  3. अति आवश्यक होने पर ही घर से स्वच्छता व सुरक्षा नियमों का ध्यान  रखकर ही निकलें।
  4. जागरूक रहें, सुरक्षित रहें।

©® पल्लवी गोयल 
चित्र गूगल से साभार 

रविवार, 15 मार्च 2020



कार के पहिए की गति के साथ ही आशा के विचार भी सफर करते हुए सात साल पीछे पहुंच चुके थे। शादी होकर जब वह घर आई थी सास और दोनों ननदों ने हाथों हाथ  स्वागत किया था।  छह महीने  हंसी-खुशी बीते फिर एक  दिन सास से हँसते हुए कहा ,"बहू अब बस एक पोता मेरी गोद में दे दो।" आशा शरमाती हुई धीरे से अपने कमरे में चली गई ।साल बीतने पर सास ने उसे तिखार कर कहा ,"बस ,बहुत हो गई प्लानिंग! अब कर ही लो।" दो-तीन साल के बाद पाँच साल भी बीत गए और सास की गोद पोते से वंचित ही थी ।पीर, मजार, मंदिर, मस्जिद,और डाॅक्टर। कुछ भी उन्होंने नहीं छोड़ा धीरे-धीरे सात साल बीत गए। एक दिन बड़े विश्वास के साथ एक मुट्ठी किशमिश  लाईं और माथे लगाते हुए आशा को देते हुए बोली। "तीन साल बाद मेरे गुरुजी शहर आए हैं। उन्होंने बिना समस्या बताए ही मुझे कहा, जा ,अपने बहू को खिला दे।" बहू ने आज्ञा का पालन किया और माथे लगाकर उसे  खा लिया। दूसरे दिन सवेरे ही आशा को उल्टियां होने लगी ।गुरु जी की जय करते हुए कहा," देखा कितना जल्दी परिणाम आया ।जब डॉक्टर घर आए तो पता चला ।यह फूड प्वाइजनिंग थी। एक हफ्ते तक बिस्तर पर पड़ी आशा  बीते सात  सालों में हुए सारे टोने-टोटके को याद करती रही। माताजी का मन रखने के लिए वह यह सब कर रही थी लेकिन असलियत उसे पता थी ।बहुत इलाज के बाद भी पति उसे मां बनाने में सक्षम नहीं थे ।सारे डॉक्टर जवाब दे चुके थे पति- पत्नी का असीम प्रेम और विश्वास आशा को सास की सभी जायज- नाजायज बातें सहने में मदद करता था पर अब पानी सिर से ऊँचा उठ गया था। बीमारी के बाद जब आशा ने बिस्तर छोड़ा तो कार की चाबी उठाकर हल्की मुस्कान के साथ  कहा ,"माँ मैं आती हूं।" सास उसका चेहरा देख रही थी ।
एक झटके के साथ ही कार और आशा के विचारों को भी विराम मिल गया ।'निसर्ग 'अनाथालय को देखते ही उसने बगल की सीट पर बैठे पति को देखा। दोनों के चेहरे की मुस्कान और गहरी हो गई।

पल्लवी गोयल
चित्र गूगल से साभार